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सोमवार, 5 अगस्त 2013

हिन्दु विधि

                                      हिन्दु
                                       भारत में हिन्दु विधि का संहिताकरणए हिन्दू बोर्ड विल में सहयोग डा0 अम्बेडकर के द्वारा सर्वप्रथम दिया गया था । हिन्दू शव्द किसी जाति अथवा सम्पं्रदाय का प्रतीक नहीं है और न ही यह शव्द किसी धर्म विशेष से संबंधित है । वे सभी लोग जो अपने आपको हिन्दू समझते हैं वे चाहे हिन्दुस्तान में रहे या बाहर जापानए इंग्लेंडए अमेरिका में रहे वे हिन्दुस्तानी कहलाते हैं । जो रिश्तेदार आक्रमण कारियों सिंधू नदी को पार कर भारत पर आक्रमण किया तो उनके द्वारा इस देश का नाम सिंधू नदी के नाम पर रखा गया ओर जब मुस्लिम आक्रमणकारी यहां आकर बस गये तो उन्होने यहां के निवासियों को अपने पास रखने के लिये हिन्दु शब्द का प्रयोग किया गया ।


यह मान्यता कि आर्य भारत में आने के बाद बस गये और सिंधो कहलाये और यह बाद में यही संधो शब्द हिन्दु बन गया जो किसी धर्म विशेष का संबोधन नहीं करता है । बल्कि एक भोगोलिक सीमाओं में रहने वाले व्यक्तियों को इंगित करता है ।
हिन्दू शब्द व्यापक है । इसके अंतर्गत वह सभी लोग शामिल हैं अथवा जिनके माता पिता जन्म से हिन्दू हैं या जो धर्म परिवर्तन करके हिन्दु धर्म अपनाते हैं । यह मान्यता है कि हिन्दू माता पिता से जो संतान पैदा हाती है चाहे वह धर्मज हो वह हिन्दुओं एबुद्व या सिख एआर्य ब्राहम्ण लोगो को मूल रूप से हिन्दु है परन्तु दूसरे धर्म को अपनाते हैं वे भी हिन्दु कहलाते हैं । इसी कारण यह मान्यता हिन्दु धर्म से संबंधित नहीं है ।


हिन्दु यदि धर्म परिवर्तन करके जैनए बौद्वएसिख धर्म स्वीकार कर लेता है तो भी वह हिन्दु बना रहता है क्योंकि उसका विवाह धर्म पोषण के अधिकार हिन्दु विधि से शामिल होते हैं । इस प्रकार व्यक्ति जन्म से हिन्दु होता है और धर्म परिवर्तन करके भी हिन्दु बन सकता है ।


हिन्दु शब्द की परिभाषा हिन्दु विवाह अधिनियम 1955 एहिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम 1956ए हिन्दु संाक्षक्ता अधिनियम तथा हिन्दु दत्तकअधिनियम 1956 में दी गई है जिसके अनुसार मुस्लिमए ईसाईए पारदीए अयुद्वी धर्म छोड़कर सभी व्यक्ति हिन्दु माने जाते हैं और इन पर हिन्दु विधि ही लागू होती है ।



हिन्दु विधि जो एक पद्धति थी और अनेक शाखाओं में विभाजित थीए उत्तराधिकारए दत्तक विवाह पारिवारिक संबंधए इच्छा पत्र बटवारा भरण पोषण में व्याप्त रूणियों परम्पराऐं प्रथा में बिखरी पड़ी थी। हिन्दु विधि का मूल स्त्रोत हमारे धर्म शास्त्र हैं जिनमें सुरभि स्मृति टीका ओर निबंध से इसका विकास हुआ है
एहिन्दु धर्म एक दर्शन से प्रभावित है ।
धर्म जिसका सात्विक अर्थ है जो अच्छा गुण अथ्वा वस्तु कार्य धारण करने योग्य होती है उसे धर्म की कोटि में रखा जाता है ।
धर्म के संबंध में वेद में परिभाषा दी है। वेद में पारंगत उन विद्वानो तथा गुणवान व्यकित्यों द्वारा जो मानवीय जो घृणा आदि अवगुणों से रहित है वे धर्म है ।

मनु स्मृति के अनुसार समृतिएसदाचार जो अपने को तुष्टिकरण है यह धर्म के स्त्रोत हैं इसके अंतर्गत मनुष्य के सभी धार्मिक नैतिक सामाजिक तथा विधिक बैधानिक कर्तव्य शामिल है

वे हर तिथि कर्तव्यों को धर्म बताते हैं ।
हिन्दु विधि धर्म तथा विधि का एक मिश्रण है । धर्म के विपरीत कोई विधि नहीं हो सकती है । हिन्दू विधि इस सिद्वांत पर आधारित है ।

नैतिक्ता के समस्त सिद्वांत जो समस्या सभी बर्गो के लिये एक समान है वे हिन्दू विधि का अंग है ।
हिन्दू विधि में मुख्य रूप से वेद समृति सदाचार पर आधारित थी । लेकिन अंग्रेजी शासन काल में न्यायालय के निर्वाह में वेद स्मृति तथा पुराणों के विपरीत व्याख्याऐं दी ।

वर्तमान में हिन्दू विधि हिन्दू कोड बिल के बाद संहिता बद्व हो गई है और मुल्ला के अनुसार हिन्दू विधि धर्म की वह शाखा है जो मनुष्य के नैतिक आधार सामाजिक व विधिक कर्तव्यो को विवेचित करती है ।

हिन्दू विधि को देव ईश्वर प्रदत्त विधि माना जाताहै क्योंकि उनकी उत्पत्ती ईश्वर से हुई है व ईश्वर की वांणी है लेकिन माद की मान्यताओं के अनुसार हिन्दु विधि प्रचलित रूणियों और प्रथाओं पर आधारित विधि है ।

वर्तमान में हिन्दु विधि धार्मिक निहित रूणियों और प्रथाओं के द्वारा न्यायालय द्वारा दिये गये पहत्वपूर्ण निर्णयों पर आधारित
विधि हे जिसमें सप्तपदी में जो भी मान्यता दी गई है और क्रूरता के आधार पर तलाक भी लिया जा सकता है । वर्तमान हिन्दु विधि के सभी वर्ग पर सामान्य रूप से लागू है जिसमें वर्ण व्यवस्था पर प्राचीन कालील भेदभाव नहीं है यही कारणहै कि आदिवासी गौढ़ आदि पर उनकी व्यक्तिगत विधि लागू होती है और वह विवादतक आदि के संबंध में हिन्दु होते हुये भी अपनी प्रथाओं अनुसार कार्य कर सकते हैं । हिन्दु विधि प्राचीन काल में

विवाह को संस्कार माना जाता था लेकिन हिन्दु विवाह अधिनियम में विवाह संस्कार नहीं है सप्तपदी आवश्यक नहीं है ज
वैवाहिक अनुष्ठान पक्षकारों की रूणियों पर और प्रथाओं पर छोड़े गये हैं । हिन्दु विवाह अधिनियम की धारा.5 के विपरीत विवाह नहीं होना चाहिये ।









































     
    





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